शिक्षा क्रम का भार
(Burden of Education System)
1. हमारी शिक्षा व्यवस्था की एक बड़ी त्रुटि यह है कि अधिक पढ़ाई कराई जाती हैं परन्तु बच्चे बहुत कम सीखते या समझते हैं।
2. पब्लिक स्कूलों की प्राथमिक कक्षाओं में स्कूल बस्ते का औसतन भार चार किलोग्राम के लगभग है।
3. हम जिस बोझ का अध्ययन करना चाहते हैं। वह न केवल भौतिक बोझ है बल्कि सीखने का बोझ भी है जो सभी स्थानों पर विभिन्न प्रकार के विद्यालयों में पढ़ने वाले सभी बच्चों पर है।
4. बचपन के शुरू के दिनों से ही बच्चे, विशेषकर मध्यम वर्गों के बच्चे, गृह कार्य, ट्यूशन तथा विभिन्न प्रकार की कोचिंग कक्षाओं में भाग लेने के लिए विवश हो जाते हैं। अवकाश तो उनके लिए दुर्लभ वस्तु हो गया है।
5. बच्चों को रोज की दिनचर्या में अपनी सहज प्रकृति या क्षमताओं को दिखाने का अवसर नहीं मिलता है। उन्हें खेलने, साधारण आनन्द लेने, सोचने-समझने और विश्व को जानने का समय नहीं मिलता है।
6. पाठ्यक्रम को पूरा करना ही अपने आप में लक्ष्य बन गया प्रतीत होता है। इसका शिक्षा के दार्शनिक व सामाजिक लक्ष्यों से कोई सरोकार नहीं रहा है।
7. स्कूल जाने वाले अधिकतर बच्चों के लिए स्कूली शिक्षा नीरस, बोझिल, अरुचिकर तथा कटु अनुभव प्रदान करने वाली प्रतीत होती है।
8. अत्यधिक बड़ी कक्षाओं, भारी पाठ्यक्रम, कठिन पुस्तकों आदि के कारण उत्पन्न कठिन परिस्थितियों में शिक्षक स्वयं को शिक्षा के व्यापक उद्देश्य बच्चे के समग्र व्यक्तित्व का विकास के लिए कुछ कर पाना असम्भव पाते हैं।
9. स्कूलों में परीक्षा उत्तीर्ण करने पर अधिक महत्व दिया जाता है। हमारी परीक्षा प्रणाली केवल रटने की क्षमता की जाँच कर पाती है। परीक्षा के द्वारा भय उत्पन्न होता है।
10. पाठ्यपुस्तकों में पाठ्यसामग्री इस ढंग से प्रस्तुत की जाती है कि पुस्तकीय ज्ञान बच्चे के संसार से बहुत अलग दिखाई पड़ता है। इससे संदेश मिलता है कि साधारण लोग जो जीवन जीते हैं वह गलत अथवा असंगत है। क्योंकि ऐसे स्कूली ज्ञान में जीवंतता नहीं होती है तथा वह उत्तरोत्तर रस्मी, बोझिल व अप्रासंगिक बनता जाता है।
11. भाषा की पाठ्यपुस्तकों में बच्चों तथा अन्य लोगों के द्वारा आम तौर पर अपने वातावरण में इस्तेमाल की जाने वाली शब्दावली, मुहावरे तथा अभिव्यक्ति शैली के दर्शन नहीं होते हैं। पाठ्यपुस्तक की कृत्रिम भाषा-शैली के कारण जीवन की दूरी बढ़ती है जो स्कूली ज्ञान से जुड़ी बोझ की भावना को और भी बढ़ा देती है।
12. पाठ्यपुस्तकों में प्रायः प्रकृति में किसी वस्तु का अवलोकन कराने के स्थान पर उस वस्तु के चित्र का अवलोकन करने के लिए कहा जाता है। अनुभव के स्थान पर चित्रों का प्रयोग करना पाठ्यलेखन में एक चिन्ताजनक प्रवृत्ति है जो बोझ की समस्या को अधिक गम्भीर बनाती है।
13. पाठ्यक्रमों की विषयवस्तु में संगठन तथा तालमेल की कमी है। उच्चतर माध्यमिक स्तर पर विज्ञान पाठ्यक्रम व पाठ्यक्रमों में अमूर्तता के स्तर में एकदम बहुत ज्यादा वृद्धि हो जाती है। अवधारणाओं और सूचनाओं की पुनरावृत्ति से भी बोरियत तथा बोझ की भावना पैदा होती है।
14. पाठ्यक्रम तथा पाठ्यपुस्तकों के आयोजकों में विभिन्न आयुवर्गों के बच्चों की पढ़ने की क्षमता तथा औसत स्कूल में सम्बन्धित विषय के शिक्षण के लिए उपलब्ध समय पर ध्यान दिये बिना ही अधिकाधिक विषयवस्तु, शामिल करने की सशक्त प्रवृत्ति या विचारधारा पाई जाती है।
15. नर्सरी शिक्षक तथा अभिभावक छोटे बच्चों को बाह्य औपचारिक अध्ययन तथा पाठ्यपुस्तकों का बोझ डालने के लिए स्वयं को बाध्य महसूस करते हैं। बाध्यता की यह भावना इस भ्रान्ति से उत्पन्न होती है कि यदि किसी बच्चे का शैक्षिक प्रशिक्षण कम आयु में शुरू नहीं किया जायेगा तो वह बाद के वर्षों में तीव्र गति के शिक्षण व प्रतियोगिता भावना का सामना नहीं कर पायेगा।
16. पाठ्यक्रम के बोझ की समस्या केवल शहरी क्षेत्रों तक सीमित नहीं है। स्कूलों की अत्यन्त खराब हालत, शिक्षकों की अनुपस्थिति जैसी आधारभूत समस्याओं के बावजूद पाठ्यक्रम के बोझ की यह समस्या ग्रामीण भारत में भी बच्चों की शिक्षा की समस्या है। पाठ्यपुस्तकों में शहरी मध्यमवर्गीय जीवन-शैली की ओर प्रतीकात्मक झुकाव है जिसके कारण भी ग्रामीण बच्चों का स्कूली अनुभवों के साथ सम्पर्क कमजोर व अस्थायी ही होता है।...
इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए छात्र –छात्राओं, अभिभावक, शिक्षक और शिक्षा मंत्रालय को चिंतन करने की बहुत ज्यादा जरूरी होता जा रहा है...
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